Thursday, May 7, 2020

जब लौकडाउन तोड़ना भारी पड़ा

मई ७, २०२०


आज फिर हिंदी में लिखने का मन कर रहा है। स्कूल के समय हिंदी में लिखने में जो आनंद आता था उसकी आज कोई प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता।

आज के लेख की प्रेरणा हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका ‘शिवानी’ (गौरा पंत जी) से आ रही है। लिखते समय न जाने क्यों उनका विचार आया। मेरी बहनों और माँ ने उनके खूब उपन्यास पढ़े हैं पर मैं थोड़ा पीछे रही। ‘कालिंदी’, ‘चौदह फेरे’ जैसी एकाध कृतियाँ जो भी पढ़ी वो मन को छू लेने वालीं थीं। अपने लेखन के माध्यम से उत्तराखंड के कुमाऊँ की संस्कृति, जनजीवन और दृष्टिकोण का जो सजीव चित्रण उन्होंने किया है वह अद्भुत ही है। पढ़ते समय घर बैठे ही पहाड़ के कुछ गाँव जरूर घुमा देती थीं कि वापस आने की इच्छा ही नहीं होती थी।

यहाँ अपने बचपन के lockdown की कहानी लिख रही हूँ। कहानी के माध्यम से यही परिणाम पर पहुंची हूँ कि lockdown तोड़ना भारी ही पड़ता है। आजकल घर बैठ कर पता नहीं क्यों बार बार जैसे बचपन के घर में होने की अनुभूति हो रही है। सोचा तो लगा यहाँ के भागते-दौड़ते जीवन के थोड़ा सा रूकने के बाद जैसे सब वहां का जैसा जीवन जी रहे हैं। दुनिया घर तक ही सीमित थी और उसी में खुशी थी। दिन भर बाहर हवा से पेड़ों के पत्ते हिलते देख फिर वही eucalytus के लंबे पेड़ों की सांय-सांय की सी शांति लगती है।

चलिए जिस प्रसंग को छेड़ने की बात की थी, उस पर आते हैं। बात उस समय की है जब मेरी आयु कुछ ५ या ६ वर्ष की थी। हम उस समय काशीपुर नाम के एक छोटे से शहर में किराये के घर में रहते थे। घर क्या कहूं मानो कैलाश पर्वत ही था। हमारे मकान मालिक के बच्चों के नाम (नंदी, गंगा, गणेश) याद आते हैं तो लगता है मानो कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के सान्निध्य में ही रहते थे।

घर की जितनी स्मृति है उससे तो लगता है एक बड़ा आँगन था, जिसके साथ ही लगा हुआ एक हैंड पंप भी था, जिससे पानी निकालने का भी अपना ही आनंद था। कभी बचपन में आपने हैंड पंप चलाया हो तो याद होगा कि उसका उपयोग झूले की तरह भी भली प्रकार किया जा सकता है।

यद्यपि घर में मुझसे छोटा एक और भी था पर तब भी मैं घर में छोटे होने का सुख भोग रही थी। गर्मियों में दिन लम्बे होते थे और हमारी माता जी रात को चारों बच्चे सर पर ना नाचें इसलिए दिन में छोटे दो को कमरे में बंद कर सोने का आदेश देती थीं। छोटे को तो उस समय सोने-खाने-रोने के अलावा कुछ आता नहीं था पर रोज के इस lockdown के अत्याचार से मैं अत्यंत परेशान थी। कभी-कभी घंटे भर कमरे में बंद रह के भी नींद नहीं आती थी। बड़ी दो बहनें बाहर खेल रही हैं ये सोच के संभवतया थोड़ी ईर्षा भी होती थी। आखिर स्वतंत्रता किसे प्यारी नहीं होती।

ऐसे ही मन मार के रोज सोने का कार्यक्रम चल रहा था कि एक दिन मेरी दोनों बहनों ने माता जी के सोने के बाद मुझे कमरे से बाहर निकालने के लिए बाहर से ही कुंडी खोलने की खूब कोशिश की। उनकी मेहनत के फलस्वरूप दरवाजा खुल गया और जल्दी ही मैं बाहर आ गयी।

कैद से छूटने का उत्साह क्या होता है ये शायद उस क्षण पता चला होगा। पर वो उत्साह ज्यादा देर टिका नहीं। शीघ्र ही एक काले मोटे चीटे ने आ मेरे पैर के अंगूठे में काट लिया। अगर आपको कभी काटा है तो पता होगा की इस काले चीटे के काटने से खून की जमुना बह जाती है। लाल चींटी काटती जरूर है पर कभी खून खराबे पर नहीं आती।

फिर क्या था, माँ की डांट के डर से मेरी बहनों ने कुछ कपड़े (या कागज?) लेके मेरे अंगूठे में बाँध दिया। इतना रक्त मैंने पहली बार देखा था कि शायद उसी कारण ये किस्सा भी स्मृति में अंकित हो गया। आसमान से गिर के खजूर पे अटकना क्या होता है ये इस घटना के कारण स्कूल जाने से पहले ही सीख लिया था मैंने।

lockdown तोड़ने का दंड जैसे खुद ही मिल गया था पर उसके साथ ही बचपन की यादें भी मिल गयीं।
lockdown तोड़ दंड के भोगी ना बनें, घर बैठ आज्ञा का पालन करें।

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