Wednesday, May 20, 2020

क्या लिखूँ?

मई २०, २०२० 


क्या लिखूँ? शीर्षक पढ़ के या तो आप इसकी पृष्ठभूमि के बारे में समझ गए होंगे या नहीं समझे तो पहले शीर्षक से ही परिचय कराते हैं - ‘क्या लिखूँ’ हिन्दी के एक प्रसिद्ध निबंधकार श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी द्वारा लिखे एक निबंध का शीर्षक है। हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम में हुआ करता था और तभी से उनका और उनके निबंध का नाम स्मृति में अंकित है। प्रश्न यह है कि उनके निबंध के नाम पर मैंने अपने लेख का नाम क्यों रखा?

मेरी एक प्रिय मित्र निरंतर लिखने को उकसा रहीं हैं और मेरा कहना था कि संभवतः थोड़ा चारदीवारी में बंद होने का प्रभाव है कि चित्त की रणभूमि में आजकल विचारों के संग्राम जैसे रुके हुए हैं। नीचे कुछ पंक्तियाँ सीधे बख्शी जी के 'क्या लिखूँ?' निबंध से अक्षरशः लिख रही हूँ ताकि पहले इस बात का समाधान हो जाए कि मैंने आज उनका शीर्षक क्यों चुना।

लेखक अपने निबंध का प्रारम्भ कुछ इस प्रकार करते हैं -
“मुझे आज लिखना ही पड़ेगा। अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबंध-लेखक ए. जी. गार्डिनर का कथन है कि लिखने की एक विशेष मानसिक स्थिति होती है। उस समय मन में कुछ ऐसी उमंग सी उठती है, हृदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति-सी आती है, मस्तिष्क में कुछ ऐसा आवेग-सा उत्पन्न होता है कि लेख लिखना ही पड़ता है। उस समय विषय की चिंता नहीं रहती। कोई भी विषय हो उसमे हम अपने हृदय के आवेग को भर ही देते हैं। हैट टांगने के लिए कोई भी खूँटी काम दे सकती है। उसी तरह अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त है। असली वस्तु है हैट, खूँटी नहीं। इसी तरह मन के भाव ही तो यथार्थ वस्तु हैं, विषय नहीं।”
लिखने से पहले बख्शी जी सोच रहे थे कि उन्होंने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया जहाँ भाव अपने आप ही मन में उठ जाएँ। मेरी स्थिति भी आज बख्शी जी की तरह है जो पहले गार्डिनर के कथानुसार ही थी। भाव स्वतः ही आते और आनन फानन में जल्दी कलम चलानी पड़ती कि कहीं इससे पहले वो आए मेहमान चले न जाएँ। बचपन में हिन्दी की परीक्षा से पहले निबंध लिखने के लिए विषय विचार से शब्दों के चुनाव तक खूब अभ्यास के बाद भी स्थिति कभी-कभी ऐसी ही होती थी कि डर लगता था तत्सम शब्दों और विचारों के आने का क्रम ठीक परीक्षा के सीमित समय में अवरुद्ध न हो जाये। जैसे शब्दों के भण्डार को किसी गुप्त झोले में साथ ले जाते थे कि चाहे निबंध का शीर्षक कुछ भी आए, झटपट साथ लाए शब्दों को जोड़ तोड़ कुछ लिखा जा सके।

लेखक को जैसे नमिता और अमिता ने निबंध लिखने को ‘दूर के ढोल सुहावने’ और ‘समाज सुधार’ जैसे दो विषय दिए थे मेरी मित्र ने भी मुझसे जिस विषय पर हम चर्चा कर रहे थे उसी पर लिखने को कहा। उनकी इस निबंध की लेखनशैली की प्रशंसा करने को शब्द नहीं मिल रहे।

"तू भारत में पहाड़ जाकर कुछ बच्चों को coding या और कुछ क्यों नहीं सिखाती?", ऐसा मेरी मित्र का मुझसे प्रश्न था। कुछ लड़कियों का भला हो जाएगा। मेरा कहना था कि co-founder मिलते ही बस वही करने जा रही हूं। मन में एकाएक ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं’ का विचार आया फिर धीरे से नकारात्मक विचारधारा कहीं अन्तर्धान हो गयी। फिर “यदि आज अतीत में जाकर कोई और व्यवसाय ‘चुनने’ का अवसर मिले तो क्या करेगी?”, उसके इस प्रश्न ने सोचने पर बाध्य कर दिया। मेरा मत था कि उस समय जो अवसर मिला बस उसी राह को पकड़ लिया,  चुनने लायक न परिस्थिति थी और न जागरूकता। तदसमयानुसार वही सही था और संभवतया कुछ गलत ही राह होती तो निश्चित ही इस संशोधन के अवसर का लाभ उठाया होता।

इसी विषय पर बात करते हुए प्रश्न था कि हमारी माताओं को कभी घर-बच्चों से आगे अपनी योग्यताओं से ‘समाज सुधार’ करने का मन नहीं हुआ होगा क्या? मेरा सोचना था कि जरूर हुआ होगा मन, पर शायद समाज थोड़ा भिन्न था उस समय। अवसरों की जागरूकता नहीं थी और आदर्शों की कमी भी, पर शायद कोई स्त्री अपने उसी अतीत से खेदग्रस्त हो ऐसा न होगा।

बख्शी जी की इन पंक्तियों को अनुभव कर पा रही हूँ -
“तरुण भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं और वृद्ध अतीत को खींचकर वर्तमान में देखना चाहते हैं। तरुण क्रान्ति के समर्थक होते हैं और वृद्ध अतीत-गौरव के संरक्षक। इन्हीं दोनों के कारण वर्तमान सदैव क्षुब्ध रहता है और इसी से वर्तमान काल सदैव सुधारों का काल बना रहता है। दोनों के ही स्वप्न सुखद होते हैं क्योंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।”

No comments:

Post a Comment

Featured Post

Kumaon Part 7 - Kausani - Baijnath - Apr 2023

April 30, 2023 See the other parts of this journey - part 1 , part 2 , part 3 , part 4 , part 5 ,  part 6 .  From our native village we went...