जुलाई १४, २०२०
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वैसे तो यहीं लिखना रोक सकती हूँ क्योंकि जो लिखने जा रही हूँ वो संत कबीर दास जी ने इस दोहे में दो पंक्तियों में लिख दिया।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।जो मन खोजा अपना, तो मुझसे बुरा न कोय।।
आज संस्कृत में लिखी एक रचना के बारे में लिख रही हूँ। श्री श्रीधर अय्यावल (तमिल नाडु के एक भक्त कवि) द्वारा विरचित ‘दोषपरिहाराष्टकम्’ नामक अष्टकम्। जैसा नाम से ही जाना जा सकता है - इस अष्टकम् में ८ श्लोक हैं। इस अष्टकम् का विषय ‘दोष’ और उसका निवारण है। यहाँ बात किसी साधारण दोष की नहीं हो रही है, रचयिता दूसरों में दोष ढूंढ़ने की मानव प्रकृत्ति का विवेचन कर रहे हैं।
ये श्लोक बहुत ही सुंदरता से वसंत तिलका छन्द में लिखे गए हैं। ये वही छन्द है जिसका प्रयोग ‘सुप्रभातम’ में हुआ है जिसे सुबह देवताओं को जगाने के लिए सुनाया जाता है। यहाँ वर्णित श्लोक भी कवि ने ईश्वर अनुग्रह पाने के लिए ही लिखे हैं अतः कहा जा सकता है कि इनका गान भी सुबह सुबह होना चाहिए।
कवि ने श्लोकों की रचना बड़ी ही चतुर शैली में की है जिसकी तुलना विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतंत्र से की जा सकती है। पंचतंत्र की कहानियां तो आज सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हैं। कहानियों को पशु जगत से पात्र लेकर लिखा गया है ताकि पढ़ते समय कहानियों के माध्यम से मानव आचरण की जिन प्रवृत्तियों को दर्शाया है उनसे पाठक को हीनता का अनुभव न हो। पशुओं के माध्यम से नैतिक मूल्यों को पाठक तक पहुँचाना भी सरल हो गया होगा अन्यथा तो पढ़ने वाले आधे में ही भाग खड़े होते।
इस अष्टकम् में भी कवि ने दोष ढूंढ़ने की प्रवृत्ति को केवल अपने माध्यम से ही, अन्य किसी पर आक्षेप न करते हुए प्रस्तुत किया है। यदि उन्होंने अन्य लोगों को अपनी रचना का पात्र बनाया होता तो शायद रचना अपने शीर्षक पर खरी न उतरती और दोष ढूंढ़ने की ही रचना बन जाती। सत्य तो यह है कि दोष ढूंढ़ने की मानव प्रकृत्ति उसके अज्ञान का एक परिणाम है। अधिकतर दूसरों में ढूंढे गए दोष खुद के अज्ञान कारणवश जनित विपर्यय का दूसरे पर अध्यारोपण होते हैं।
कवि ईश्वर अनुग्रह की प्रार्थना कर रहे हैं ताकि अपनी अन्य लोगों के दोषों की गणना करने की अपनी इस प्रवृत्ति से निवृत्ति पा सकें। यहाँ मैं उनके द्वारा लिखे श्लोकों का शब्दशः विवरण न करते हुए उन्ही की शैली में कुछ मुख्य तथ्यों को लिख रही हूँ।
प्रथम श्लोक की तुलना तो सीधे तर्जनी से की जा सकती है। जैसे तर्जनी ये भूल जाती है कि दूसरे की ओर मुख करते समय उसकी बाकी सखियाँ उसके अपने स्वामी की ओर देख रही होती हैं। कवि के अनुसार दोष ढूंढ़ने का उनका ये कौतुक उनके अपने ही दोषपूर्ण होने का आविष्कार करता है। वे बड़ी ही चतुराई से इसे तर्क पूर्वक सिद्ध भी करते हैं। यदि ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ से सब कुछ ही वह (‘ईश्वर’) है, और मैं उसी में दोष ढूंढ रहा हूँ तो निश्चयेन दोष मेरे ही अंदर होगा - भला उस ईश्वर में दोष कैसे हो सकता है?
मेरी दोष ढूंढ़ने की कला से मेरे अपने दोष ही सतह पर आते हैं, दोष ढूँढ़ते समय मैं आखिर दिखता कैसा हूँ? इस पर उन्होंने गंदगी में लोटते एक सूअर की कल्पना की है जिसे कीचड़ में रहना पसंद होता है। कीचड़ का उपयोग करके भी कैसी सुन्दर कल्पना की जा सकती है ये आप सोचें।
दोषगणना किन स्थितियों में की जा सकती है इस पर वो ३ स्थल गिनाते हैं जहाँ दोष गिना जा सकता है परन्तु वो फिर भी दोष ना ही ढूंढ़ने का सुझाव देते हैं। ये ३ परिस्थितियां हैं -
१. जब कोई आप पर अपने विकास के लिए निर्भर हो जैसे शिष्य या संतान
२. जब कोई अपनी उन्नति के लिए आपसे अपने दोष पूछे
३. जब कोई इतनी निम्न दशा में हो (व्यसनातुर) कि उसके दोष उसे गिनाने से वो उस व्यसन से बाहर आ जाये
मेरी मानें तो ना ही गिनें दोष या फिर कवच धारण कर के ही ऐसा करें।
यदि इतना समझने के बाद भी दोष ढूंढ़ने की इच्छा हो तो क्या करें? यहाँ पतञ्जलि योग सूत्र के एक प्रमुख सूत्र को भी लिखा जा सकता है - वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् (जब अनुपयुक्त विचार बाधा डालें तो उन्हें विपरीत विचारों से निरस्त करना चाहिए)। कवि इसके लिए एक और सुन्दर उपमा देते हैं। अपनी दोष गणना करने की प्रवृत्ति से छुटकारा पाने के लिए मुझे दूसरों में अच्छाई ढूंढनी चाहिए जिससे वैसा ही आनंद मिलेगा जैसा एक भौरें को कमल के फूल की सुगंध लेने से मिलता है।
कवि की कल्पना से प्रेरित होकर मेरी कल्पना शक्ति भी जाग गयी। दोषगणना से साधुत्व देखने का ये दृष्टि परिवर्तन मुझे ऐसा लगा जैसे तर्जनी ज्ञानमुद्रा में परिवर्तित हो गयी हो। जहाँ तर्जनी दूसरों की ओर संकेत करती थी अब वही तर्जनी झुक कर दूसरों की प्रशंसा करती लग रही है। आजकल की व्हाट्सऍप-फेसबुक की दुनिया में इन हस्तकलाओं का प्रयोग करना भी बहुत ही सरल हो गया है।
दोषगणना किन स्थितियों में की जा सकती है इस पर वो ३ स्थल गिनाते हैं जहाँ दोष गिना जा सकता है परन्तु वो फिर भी दोष ना ही ढूंढ़ने का सुझाव देते हैं। ये ३ परिस्थितियां हैं -
१. जब कोई आप पर अपने विकास के लिए निर्भर हो जैसे शिष्य या संतान
२. जब कोई अपनी उन्नति के लिए आपसे अपने दोष पूछे
३. जब कोई इतनी निम्न दशा में हो (व्यसनातुर) कि उसके दोष उसे गिनाने से वो उस व्यसन से बाहर आ जाये
मेरी मानें तो ना ही गिनें दोष या फिर कवच धारण कर के ही ऐसा करें।
यदि इतना समझने के बाद भी दोष ढूंढ़ने की इच्छा हो तो क्या करें? यहाँ पतञ्जलि योग सूत्र के एक प्रमुख सूत्र को भी लिखा जा सकता है - वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् (जब अनुपयुक्त विचार बाधा डालें तो उन्हें विपरीत विचारों से निरस्त करना चाहिए)। कवि इसके लिए एक और सुन्दर उपमा देते हैं। अपनी दोष गणना करने की प्रवृत्ति से छुटकारा पाने के लिए मुझे दूसरों में अच्छाई ढूंढनी चाहिए जिससे वैसा ही आनंद मिलेगा जैसा एक भौरें को कमल के फूल की सुगंध लेने से मिलता है।
कवि की कल्पना से प्रेरित होकर मेरी कल्पना शक्ति भी जाग गयी। दोषगणना से साधुत्व देखने का ये दृष्टि परिवर्तन मुझे ऐसा लगा जैसे तर्जनी ज्ञानमुद्रा में परिवर्तित हो गयी हो। जहाँ तर्जनी दूसरों की ओर संकेत करती थी अब वही तर्जनी झुक कर दूसरों की प्रशंसा करती लग रही है। आजकल की व्हाट्सऍप-फेसबुक की दुनिया में इन हस्तकलाओं का प्रयोग करना भी बहुत ही सरल हो गया है।
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