Wednesday, September 30, 2020

मृत्युंजय

सितम्बर ३०, २०२० 

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लगातार लिखते न रहो तो लिखने वाली कलम की स्याही भी सूख जाती है. आजकल बस उस किनारे रखी कलम जैसी स्थिति हो रही है - बार-बार मंथन करने के बाद ही लिखने को विचार आते हैं. डायरी के पन्नो को पलटा तो जैसे बीच में मोड़ के सहेज के रखा कोई पुराना कागज का टुकड़ा मिल गया. काफी समय पहले लिखा था कुछ और उस कागज की तरह किसी किताब के बीच में रख दिया था.

लिखना एक कला ही है, बाकी कलाओं की तरह इसमें भी पढ़ने वाले को मन्त्रमुग्ध करने की शक्ति है. इस बात का अनुभव मुझे बहुत साल पहले एक उपन्यास पढ़ते समय हुआ. मराठी साहित्य के एक प्रसिद्ध लेखक श्री शिवाजी सावंत द्वारा रचित इस उपन्यास के हिंदी संस्करण की प्रति छुट्टियों में पढ़ने को मिली. उपन्यास पढ़ने में मेरी रुचि हमेशा से कम ही रही है और इसकी मोटाई देख शायद वैसे भी सोचा नहीं था कि पूरा होगा. पर इसके विपरीत मेरी पढ़ने की चाल जल्दी ही कछुए से खरगोश की में परिवर्तित हो गयी. 

‘मृत्युंजय’, इस उपन्यास में शिवाजी ने महाभारत के कर्ण को मुख्य पात्र बनाकर लिखा है. मूल उपन्यास मराठी भाषा में है और बाद में ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ द्वारा हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया गया. उपमा अलंकार के ऐसे अनोखे उदाहरण पढ़ने को मिलते हैं इसमें. उदाहरण के लिए शकुनि मामा राजनीति के बारे में कहते हैं - “राजनीतिज्ञ का मन जंगली चूहे के बिल जैसा होना चाहिए. जैसे यह किसी को पता नहीं चलता वो बिल कहाँ से शुरू होता है और कहाँ जाता है, वैसे ही राजनीतिज्ञ के मन में क्या क्या है इसका किसी को कभी पता चलने देना नहीं चाहिए.” 

इसी पुस्तक के एक संवाद को यहाँ लिख रही हूँ. दुर्योधन और गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के बीच हुए इस काल्पनिक संवाद को पढ़ के जरूर लगेगा कि महाभारत में जिस दुर्योधन का विवरण है वो इस काल्पनिक दुर्योधन से थोड़ी प्रेरणा ले लेता. 

दुर्योधन के मन में इस बात का क्षोभ था कि पाण्डवों को लाक्षागृह में जला कर उसे क्या मिला? उसके जैसे कुरुवंश के राजकुमार को क्या यह शोभा देता है. अचानक उसके मन में प्रश्न उठता है ‘जीवन क्या है?’ ये प्रश्न किसके मन में नहीं आया? दुर्योधन अपने प्रिय मित्र अश्वत्थामा के समक्ष यह प्रश्न रखता है - ‘जीवन क्या है?’ अश्वत्थामा के मन में कुरुवंश के कुमार के लिए बहुत आदर था अतः ऐसे दुर्योधन के सामने जीवन की गुत्थी सुलझाने के लिए शब्द न पाते हुए कहा - जीवन म्यान में रखा हुआ खड्ग है. दुर्योधन की उत्सुकता ये सुन कर और बढ़ जाती है और अपने मित्र को आगे समझाने को कहता है. म्यान शरीर की तरह है और खड्ग की धार उस म्यान में रखा हुआ जैसे शरीर में मन. अश्वत्थामा की कल्पना अभी पूर्ण न हुई थी. आत्मा उस खड्ग की मूठ (hilt) के समान है जिसका उससे सम्बन्ध है भी और नहीं भी. बिना मूठ के न म्यान अच्छी लगेगी और न खड्ग चलाया जा सकता है. 

दुर्योधन के प्रश्न भी अभी समाप्त नहीं हुए थे. आगे पूछा कि शरीर के न रहने पर आत्मा का क्या होता है? या म्यान के नष्ट होने पर मूठ का क्या होता है? अश्वत्थामा को ये याद दिलाना पड़ा कि मूठ को क्या होगा, वो तो कभी म्यान में रहती नहीं है. शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा का क्या होगा? खड्ग के कारण म्यान में रखी लगती है ये मूठ. ऐसा ही है आत्मा का इस शरीर और मन से सम्बन्ध. 

अश्वत्धामा की अनूठी उपमा की सराहना करें या शिवाजी के निराले लेखन की? शिवाजी सावंत जी का एक और उपन्यास मेरी किताबों की सूची में जुड़ गया है - युगन्धर. 

‘जीवन क्या है?’ - महाभारत काल में (काल्पनिक ही सही) दुर्योधन के मन में यह प्रश्न आया तो उसने अपने मित्र की सहायता से इसका समाधान कर लिया. बीसवीं सदी में एर्विन स्क्रोडिन्गर (भौतिकज्ञ) के मन में फिर यही प्रश्न उठा और उन्होंने इस पर पूरी किताब लिख डाली - What is Life ?. पढ़ी तो नहीं पर दोनों में एक समानता लगती है, जिसके पास जो साधन था उसने उसी से अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढ लिए - खड्ग या भौतिकी, संभवतः उत्तर एक ही मिला होगा.

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